देश के मुस्लिम समाज को इस साल भी राजनीतिक गलियारों से लुभाने की खूब कोशिशें हुईं. कहीं आरक्षण के नाम पर तो कहीं विकास के एजेंडे के नाम पर देश के इस सबसे बड़े अल्पसंख्यक तबके का वोट हासिल करने की जद्दोजहद अमूमन सभी राजनीतिक दलों में देखी गई.
राजनीतिक मुद्दों के साथ असम हिंसा और उत्तर प्रदेश एवं कुछ अन्य स्थानों पर भड़की सांप्रदायिक हिंसा को लेकर भी मुस्लिम जगत में एक तरह की चिंता देखी गई. इसी को लेकर कई मुस्लिम संगठनों ने सांप्रदायिक हिंसा को रोकने के लिए सख्त कानून बनाने की मांग की.
इस्लामी जानकार अख्तरूल वासे का कहना है, ‘देश को प्रभावित करने वाले हर मुद्दे और विषय का मुस्लिम समाज पर बराबर का असर होता है. मेरा मानना है कि यह साल कुल मिलाकर देश के लिए अच्छा रहा है और ऐसे में मुस्लिम समाज के लिए भी अच्छा था. आरक्षण या कुछ मुद्दों पर कोई खास नतीजा नहीं देखने को मिला, लेकिन लोकतंत्र में उम्मीद हमेशा रखनी चाहिए.’ साल 2012 की शुरुआत में ओबीसी कोटे में अल्पसंख्यकों के लिए साढ़े चार फीसदी आरक्षण का प्रावधान करने संबंधी केंद्र सरकार के फैसले को लेकर खूब बहस हुई. उत्तर प्रदेश और कुछ अन्य राज्यों में विधानसभा चुनाव से पहले से आए केंद्र के इस फैसले को राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिश के तौर पर देखा गया. यह बात दीगर है कि इसका उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को कोई फायदा नहीं हुआ.
आरक्षण का भाजपा ने पुरजोर विरोध किया तो सपा और बसपा ने इसे छलावा करार दिया. इसी बीच मई में आंध्र प्रदेश उच्चन्यायालय ने साढ़े चार फीसदी आरक्षण को रद्द कर दिया. अब केंद्र सरकार कह रही है कि वह उच्चतम न्यायालय में अपना पक्ष व्यापक रूप से रखेगी.
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य और सपा नेता कमाल फारूकी कहते हैं, ‘आरक्षण के बारे में मुस्लिम समाज से जो वादे किए गए, वे पूरे नहीं हुए हैं. केंद्र ने 4.5 फीसदी को आरक्षण को बहाल करने की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया. उम्मीद करते हैं कि उत्तर प्रदेश में मेरी पार्टी इस दिशा में तेजी से कदम उठाएगी.’ कांग्रेस और संप्रग का आरक्षण का सियासी दाव भले ही नाकाम रहा हो, लेकिन उत्तर प्रदेश में मुसलमानों को आबादी के अनुपात में आरक्षण देने का वादा करने वाली सपा को इसका खूब फायदा मिला. उसे राज्य विधानसभा के चुनाव में भारी बहुमत मिला.
गुजरात विधानसभा चुनाव में मुस्लिम वोट बैंक को लुभाने की कोशिश
साल के आखिर में गुजरात विधानसभा चुनाव के समय भी मुस्लिम वोट बैंक को लुभाने की कोशिश हुई, लेकिन पिछले चुनावों के उलट इस बार मुद्दा विकास पर केंद्रित रहा. मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने तमाम अटकलों से उलट एक भी मुसलमान को टिकट नहीं दिया, लेकिन चुनाव के बाद नतीजों से पता चला कि इस बार इस समुदाय का अच्छा-खासा वोट भाजपा को मिला. इसको लेकर भी खूब बहस हो रही है.
कई स्थानों पर सांप्रदायिक हिंसा
इस वर्ष कई स्थानों पर सांप्रदायिक हिंसा भी हुई. सबसे बड़ी हिंसा असम में हुई. इसको और म्यांमार में रोहिंगया मुस्लिम विरोधी हिंसा को लेकर भारतीय मुसलमानों ने खुलकर अपने गुस्से का इजहार किया. इसी तरह की एक विरोध रैली का आयोजन 11 अगस्त को मुंबई के आजाद मैदान में किया गया, जहां हिंसा भड़क गई थी. इसको लेकर भी जमकर राजनीति हुई.
उत्तर प्रदेश में बरेली, फैजाबाद, गाजियाबाद के मसूरी, प्रतापगढ़ और कई अन्य स्थानों पर सांप्रदायिक हिंसा भड़की. इसको लेकर अखिलेश सरकार को मुस्लिम संगठनों का कड़ा विरोध झेलना पड़ा.
साल की शुरुआत में विवादास्पद लेखक सलमान रूश्दी के विरोध की खूब चर्चा रही. जयपुर साहित्य महोत्सव में रूश्दी आने वाले थे लेकिन दारूल उलूम देवबंद और कई अन्य मुस्लिम संगठनों ने इसका कड़ा विरोध किया. इस कारण उनके आने के कार्यक्रम को टाल दिया गया. मुस्लिम संगठन ‘सेनेटिक वर्सेस’ पुस्तक के कारण रूश्दी का विरोध करते हैं.
वर्ष 2012 में कई अजीबो-गरीब फतवे भी आए जिनको लेकर बहस हुई. दारूल उलूम ने कई ऐसे फतवे जारी किए. एक फतवे में कहा गया कि बांह पर टैटू होने और अल्कोहल युक्त परफ्यूम इस्तेमाल करने की स्थिति में नमाज जायज नहीं है. एक अन्य फतवे में कहा गया कि मुस्लिम लड़की किसी आफिस में रिसेप्शनिस्ट नहीं हो सकती.
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