पटेल अंकल के यहां हूं. खिड़की से देखता हूं कि चायख़ाने में कई बार खौलाई गई चाय एक बार फिर खौल रही है. वहां छह-एक लोग हैं, जिन्होंने दोनों हाथों में कांच का जाना-पहचाना शक्तिशाली गिलास जकड़ रखा है. वह गिलास जो राष्ट्रीय स्तर पर चाय पिलाने के लिए ही अधिकृत किया गया है. अंकल की बिटिया होमवर्क करने ड्रॉइंग रूम में आ गई है. उम्दा ऊनी टोपी, फूले हुए मुलायम स्वेटर, कंधे से लटकती दो चोटियों और जूतेनुमा मौजों में वह बाहों में कस लेने के लिए पर्याप्त प्यारी लग रही है. उसके शरीर में अभी-अभी नहाकर आने की ख़ुशबू है. ग़ज़ब की ठंड है.
हो सकता है यह भ्रम ही हो, पर मुझे लगता है कि सर्दियों में हम ख़ुशबुओं के प्रति कुछ अतिरिक्त मोहब्बत में पड़ जाते हैं. संभव है, इस मौसम में नासिका ताक़तवर हो जाती हो. एक चीज़ समझाने को पांच वाक्य ज़ाया करना अपराध सरीखा है, इसलिए चौथे से लब्बोलुआब यूं समझिए कि ख़ुशबुएं महसूस करने के लिए सर्दियां मुझे सबसे माक़ूल लगती हैं, बस.
किट्टू को लाड करने के बाद मैं इस मौसम विशेष पर सोचने लगता हूं और स्मृतियां मुझे स्कूल ले जाकर छोड़ देती हैं. तब मैं बहुत कुछ ख़ुशबुओं से ही पहचानता और याद रखता था. पेंसिल की ख़ुशबू. रबर की ख़ुशबू. इतिहास की सेकेंड हैंड किताब और टीचर के दस्तख़त की ख़ुशबू. किसी अघोषित नियम की तरह हर चीज़ को नाक के पास ले जाना था मुझे. सर्दियों में खाने-पीने की गर्मा-गर्म चीज़ों के साथ हम यूं भी इसी तरह पेश आते हैं. चाय, सूप, साग और सब्जियों की ख़ुशबुओं में हमारी उत्सुकता कुछ बढ़ जाती है और उन्हें खाते-पीते हुए हम थोड़ी-थोड़ी ख़ुशबू भी खाते-पीते रहते हैं. अदरक भी फैसिनेट करने लगता है.
मुझे याद है, सर्दियां आने के साथ एक नई तरह की ख़ुशबू का अनुभव तब होता, जब संदूकों-आलमारियों से स्वेटर निकाले जाते. धूप दिखाने से पहले के स्वेटर मुझे सिर्फ इसलिए पसंद थे कि वैसी ख़ुशबू कहीं और नहीं मिलती थी. स्कूल में मेरे वे दोस्त जो हमेशा पेंसिल छीलते या रबर से मिटाते रहते थे, पेंसिल या रबर की तरह महकने लगे थे. उनके पास होने का पता लग जाता और याद आ जाता था कि उन्हें पेंसिल छीलने और रबर घिसने की आदत है. हम जानते थे कि किसके पास कौन सी रबर मिलेगी, किसकी रबर घिसी हुई काली होगी और लाल वाली महकउआ कौन रखे होगा. सहपाठियों की पहचान की एक पद्धति यह भी थी. पेंसिल-रबर की मिली-जुली ख़ुशबू में एक क़िस्म की विचित्र बात थी, जो इत्र में नहीं हो सकती थी. जिस दिन यह ख़ुशबू नहीं आती, हममें से कोई कहता, 'लगता है आज वे नहीं आए'. फिर कहीं से आवाज़ आती, 'हम आए हैं, पर अपनी पेंसिल-रबर लाना भूल गए'.
जब मैं कलम से लिखने की उम्र में आया, तो स्याहियों की ख़ुशबुओं में फ़र्क़ समझने लगा. मुझे याद है, हिंदी-कॉपी के 'जोड़ा-पेज' पर उधार की महकती क़लम से मैंने सुंदर-सुंदर शब्दार्थ लिखे थे, जिन्हें याद करने में मुझे न्यूनतम वक़्त लगा था. मां पढ़ने को कहतीं, तो कॉपी में मुंह घुसाकर बैठ जाता और पसंदीदा स्याही की गंध से हरा-भरा सा महसूस करने लगता. नीली में जो महकने वाली स्याही थी, वो कुछ बैंगनी होती थी और लाल वाली कुछ गुलाबी. जैसे ख़ुशबू ने स्याही के रंग को डायल्यूट कर शरारती बना दिया हो. यह मूंछ लगते ही राम को श्याम में बदलते देखने के 'गोलमाली रोमांच' जैसा था. मैं उसमें मस्त हो जाता.
होमवर्क में किट्टू की मदद कर रहा हूं. वह कॉपी के बेहद क़रीब जाकर लिखती है. इस दौरान उसका सिर तिरछा रहता है. बीच-बीच में वह सिर उठाती है और मेरी ओर मुंह बनाकर मुस्कुरा देती है.
छोटे बच्चों के गालों की ख़ुशबू पर मैं जान छिड़कता था. घर आया कोई मेहमान बच्चा साथ लाता, तो मैं खिल उठता. उस अबोध के गाल पर नाक धरकर उसे चूमता रहता. मां सबको बतातीं, इसे बच्चे बहुत पसंद हैं.
मेरे जीवन की सबसे प्रचलित ख़ुशबुएं तब यही थीं. अच्छा-अच्छा सा लगता था, जब पेंसिल-रबर की गंध वाली सहेलियां बाजू में आकर बैठ जाती थीं. ख़ुशबुओं वाले स्केच-पेन की ज़िद करता था. उससे मुस्कुराते हुए जोकर में रंग भरता था और अपनी हास्यास्पद दुनिया के एक कोने में खड़ा होकर गंभीरता से सोचता था कि स्केच की ख़ुशबू को यहां न होकर, लोगों के शरीर में होना चाहिए. हर एक के. मैंने कई बार चाहा था कि अपनी दुनिया की मुख़्तलिफ़ खुशबुओं को एक-एक करके दोस्तों में बांट दूं. मैं चाहता था कि वे बच्चे भी इसी तरह महकें, जिनके साथ खेलने से मुझे मना किया जाता रहा.
जीवन की गूढ़-उज्जड़-कच्ची ख़ुशबुओं से तब मेरा ज़्यादा पाला नहीं पड़ा था. लेकिन उनके प्रति किसी तरह की हीन भावना से ग्रस्त कभी नहीं था. अब भी यह न समझा जाए कि मैं गंधों के अस्तित्व को अच्छाई-बुराई में वर्गीकृत करके देखता हूं. डिटॉल से नहाकर या हैंड सैनिटाइजर चुपड़कर निकले शख़्स की तरह कभी नहीं रहा, जो बड़े ही सामंती आत्मविश्वास से ख़ुद को सबसे हाइजीनिक समझता है.
मेरी दुनिया में और भी कई ख़ुशबुएं थीं, जो अब ठीक-ठीक पहचान में नहीं आतीं. उनके बारे में सोचना ही एकमात्र विकल्प है. हालांकि मैं नहीं जानता कि गंध की कल्पना कैसे की जाती है. किट्टू उन ख़ुशबुओं को बेहतर जानती होगी. ख़ुशबुओं को दर्ज करने की मेरी क्षमता अब घट गई है. यह भी संभव है कि सब ख़ुशबुएं किसी यादख़ाने में कहीं बहुत तेज़ी से दर्ज हो रही हों और उम्र के किसी पड़ाव पर उनका दर्ज होना दिखे. आंटी मेरे लिए केसर वाला दूध लेकर आई हैं. चायख़ाना अब भी गुलज़ार है. किट्टू पेंसिल छील रही है.
Okay